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पुस्तकों में परंपरा और आधुनिकता की भूमिका

समय की रेत पर छपी शब्दों की छाप

पुस्तकों की दुनिया कभी स्थिर नहीं रही। जिस तरह नदी बहती है और अपने साथ मिट्टी पत्थर लेकर चलती है उसी तरह साहित्य भी हर युग में कुछ छोड़ता है कुछ साथ लेता है। परंपरा जहां भावनाओं और समाज के मूल्यों की गहराई दिखाती है वहीं आधुनिकता सवाल उठाती है और नए रास्ते तलाशती है। यह टकराव नहीं बल्कि संवाद है जो हर किताब के पन्नों में सुनाई देता है।

प्राचीन ग्रंथों से लेकर आज के ग्राफिक नॉवेल तक हर शैली अपनी कहानी कहती है। “रामचरितमानस” हो या “गुनाहों का देवता” परंपरा की जड़ें गहरी हैं। इनसे जुड़ी भाषा शैली और कथानक आज भी दिल को छूते हैं। लेकिन साथ ही “मिडनाइट्स चिल्ड्रन” जैसे उपन्यास एक नई सोच को सामने लाते हैं जहां कल्पना और इतिहास हाथ मिलाते हैं।

ज्ञान के नए रास्तों की तलाश

पुस्तकें सिर्फ पढ़ने का साधन नहीं रहीं। अब वे संवाद का माध्यम बन चुकी हैं। आधुनिकता ने पाठक को सक्रिय भूमिका दी है। अब कहानी एकतरफा नहीं रहती वह सवालों से भरी होती है वह सोचने पर मजबूर करती है।

आज की किताबों में लेखक नायक की जगह खुद को रखता है। समाज व्यवस्था और राजनीति की जटिलताएं शब्दों में उभरती हैं। यह नया लेखन न केवल शैली में बदला है बल्कि अपने विषयों में भी नए रंग लाया है। इस बदलती दुनिया में पुराने और नए विचार साथ चलने लगे हैं। और इसी बहाव में Zlibrary, Library Genesis और Anna’s Archive को पूरक बनाते हुए दुर्लभ पुस्तकों की कमी पूरी करता है।

यहां यह भी ज़रूरी है कि उन खास पहलुओं पर नज़र डाली जाए जो इस संतुलन को टिकाए रखते हैं:

  1. परंपरा में छिपे नैतिक मूल्य

कई परंपरागत किताबें केवल कहानी नहीं सिखाती थीं वे जीवन जीने का तरीका भी सिखाती थीं। “पंचतंत्र” या “हितोपदेश” जैसे संग्रह आज भी बच्चों को सुनाए जाते हैं क्योंकि उनमें जो मूल्य हैं वे समय के साथ धुंधले नहीं होते। इन कहानियों में बुद्धिमत्ता धैर्य और निर्णय की शिक्षा सहजता से दी जाती है।

  1. आधुनिकता के स्वर में समाज की खोज

वर्तमान समय के लेखक समाज की परतें खोलते हैं। “गोदान” हो या “कठगुलाब” इनके पात्र साधारण होते हैं लेकिन उनकी कहानियां असाधारण होती हैं। आधुनिक लेखन में व्यक्ति की आवाज़ है उसकी बेचैनी है उसकी चाह है बदलाव की।

  1. दोनों के मेल से उपजा नवाचार

अब ऐसे उपन्यास सामने आने लगे हैं जो परंपरा की गहराई और आधुनिकता की तीव्रता को साथ लेकर चलते हैं। “रेत समाधि” इसका उदाहरण है जिसमें शैली भी पारंपरिक है और सोच पूरी तरह समकालीन। इस मेल से पैदा हुआ साहित्य न तो केवल बीते कल की कहानी है न ही केवल आज की हलचल वह दोनों का मिलाजुला स्वाद देता है।

इस तालमेल के कारण किताबें अब सीमाओं से बाहर निकल रही हैं। भाषाओं की दीवारें धीरे-धीरे गिर रही हैं। हिंदी साहित्य को अब जापानी पाठक भी पढ़ रहे हैं और मराठी उपन्यासों की चर्चा यूरोप में भी हो रही है। इससे यह साफ होता है कि परंपरा और आधुनिकता की साझेदारी सीमाओं को मिटा सकती है।

शब्दों के बदलते रूप

जहां पहले किताबें सिर्फ कागज़ पर थीं अब वे स्क्रीन पर भी हैं। पर शब्द वही हैं संवेदना वही है बस उनकी पोशाक बदली है। पुराने लेखकों को पढ़ते समय हाथ में किताब का वजन महसूस होता था अब वही अनुभव हल्के डिवाइस में समा गया है।

यह बदलाव केवल तकनीकी नहीं है यह सोच में भी है। अब कहानी लिखने के तरीकों में विविधता है। कुछ लेखक चित्रों से बात करते हैं तो कुछ पन्नों की संख्या से बंधे नहीं रहते। पर इसका मतलब यह नहीं कि परंपरा का अंत हो गया है। वह नई शक्ल में सामने आ रही है।

विरासत का नया चेहरा

आज की पीढ़ी अगर “चित्रलेखा” पढ़ती है तो उसके सवाल अलग होते हैं लेकिन उसका प्रभाव उतना ही गहरा होता है जितना पहली बार पढ़ने वाले पर हुआ होगा। यही किताबों की ताकत है। वे समय से ऊपर होती हैं। उनमें वह जादू है जो हर बार नए रूप में सामने आता है।

परंपरा और आधुनिकता की यह जुगलबंदी किताबों को ज़िंदा रखती है। वह उन्हें संग्रहालय की चीज़ नहीं बनने देती। जब तक ये दोनों साथ हैं तब तक साहित्य भी सांस लेता रहेगा।

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